Friday, April 19, 2024

मोबाइल रिचार्ज

आज १९ अप्रैल है,पापा के चले जाने के बाद २३ वाँदिन।पापा के मोबाइल का रिचार्ज १३ तारीख़ को ख़त्म होता थालेकिन वो १० तारीख़ से ही मुझे याद दिलाना शुरू कर देते थे कि उनका मोबाइल रिचार्ज करना नहीं भूल जाऊँ।आज सहसा ध्यान आया कि पापा के मोबाइल को रिचार्ज हुए बिना छह दिन बीत गये है।बहुत भारी हो गया मेरा मन,इंसान कैसा है?इतने से दिनों में ही स्मृति लोप?मन में कसक उठ खड़ी हुई,वेदना व्याप्त हो गई सचमुच पापा को तीन चार बार याद दिलाना पड़ता था कि महेंद्र मेरा मोबाइल रिचार्ज करना मत भूल जाना।अपने मोबाइल रिचार्ज के लिए,अब ये शब्द मेरे कानों में कभी नहीं पड़ेंगे?महेंद्र,मेरा मोबाईल रीचार्ज करना मत भूल जाना।उनके अनमोल दस्तावेज के पाने पलटते हुए उनकी ऐतिहासिक स्मृतियाँ ताजाहो रही हैं।मेरे पापा का व्यक्तित्व अत्यंत विशाल था, उनके जीवन का पूरा हिस्सा इतना सुव्यवस्थित था।जब से जन्म लिया तब से लेकर ५८ वर्ष की उम्र तक पापा के साथ रहा,मुझे हमेशां यही लगा कि मैं उनके साथ रहता हूँ,उनके घर में रहता हूँ,मेरे घर मैं जो भी कुछ सामान है सब उनका है,मेरे घर में जीतने भी बर्तन हैं उन सब पर नाम मेरे पापा का है,मेरे घर की नेम प्लेट पर नाम मेरे पापा का है,ये घर मेरे नाम से नहीं उनके नाम से जाना जाता है,कॉलोनी के और बाहर के सभी लोग इसे मेरा घर नहीं जानते,सब इसको मेरे पापा के घर के नाम से जानते हैं,वे इस घर के सर्वोच्च मुखिया थे,उनकी एक आवाज से उनके एक आदेश से मेरे घर में सभी के हलचल मच जाती थी।आज उनका मोबाइल रिचार्ज के लिए नहीं कहता,आज उनका मोबाइल ख़ामोश भी है,अपनी डायरी में से देख देख कर अपने दोस्तों रिश्तेदारों को फ़ोन करके तेज आवाज में हाल चाल जानने के उनके चिर परिचित अन्दाज़ से हॉल गूंजता रहता था,आज सब कुछ शांत है,ख़ामोश है,घर का जर्रा जर्रा अजीब सी खामोशी का आवरण ओढ़े हुए है।घर में जब भी कोई आता,डोर बेल बजाता तो मुझे पक्का यक़ीन होता था कि अवश्य कोई ना कोई उनसे मिलने के लिये ही आये होंगे, और होता भी यही,आने वाले उनके लिए ही होते थे।बहुत बार तो पापा को लोगों को ये बताना पड़ता था कि ये महेंद्र, है छीटे वाला।मैंने कभी सपने में भी ये महसूस नहीं किया था कि मुझे उनके सानिध्य के बिना भी रहना होगा,अब जब वो नहीं है तो उनकी अनुपस्थिति को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों का अभाव है,किन शब्दों में बयान करूँ कि उनके बिना क्या है?कैसा है?दिल के भीतर एक ज्वार उठता है ,गिरता है,अपरिभाषित इस वेदना को किसी के सामने व्यक्त भी करूँ तो कलम ख़ामोश है,शब्द गूँगे है,पहली बार इतना असहाय महसूस करता हूँ किसको कहूँ,क्या कहूँ?क्योंकि जो बिना कहे ही समझ जाते थे वो तो अब हैं नहीं।पापा बहुत चुप चुप रहते थे,अनावश्यक बोलने की उनकी आदत नहीं थी,इसलिए उनकी आवश्यकता और भावना को बिना कहे ही समझ जाना होता था,उनके हाव भाव,उनके समय की पाबंदी आदि ऐसे तथ्य थे जिनके कारण उनके प्रति कुछ भी जानना मुश्किल नहीं रहा।
                आज इस प्लेटफ़ार्म पर मेरा यह कहने का मन है कि हम सब लोग इस वास्तविकता को जान लें कि यहाँ हम में से कोई भी स्थाई नहीं है सभी अस्थाई हैं और यहाँ हम केवल मात्र एक निश्चित समय के लिए हैं,ऐसे में हमें उतना ही करना चाहिए जितना ज़रूरी है,अन्यथा हम प्रकृति के ख़िलाफ़ चल रहे हैं।मेरे पापा का जाना मुझे बहुत से मायनों को समझा गया है हालाँकि मुझे अब लगता है कि पापा भी मुझे यही समझाना चाह रहे थे लेकिन शायद वो बहुत स्पष्ट नहीं समझा सके।मेरे पापा का जीवन अपने आपमें एक विस्तृत शब्दकोश है,आज मैं जब ५८ साल है की उम्र में आ कर अपने पापा के समूचे जीवन पर दृष्टिपात करता हूँ तो मेरी सामने चलचित्र की तरह एक एक बात घूम जाती है।मैंने अपने पूरे ५८ साल में पापा से अलग समय कभी नहीं बिताया।मेरे पापा मेरे पिता तो थे ही लेकिन वो मेरे अध्यापक,मेरे गुरु और मेरे हेड मास्टर भी रहे थे।मेरे जीवन की शुरुआत मेरी माँ और पापा के साथ हुई उन्होंने मुझे सहज ही अप्रत्यक्ष रूप से जो दे दिया उसका मूल्य मुझे आज समझ आ रहा है,,सबकुछ इतना अनमोल कि कोई परिभाषा नहीं की जा सकती।मुझे इस बात की पीड़ा है कि जब हम अपने आपको अभिव्यक्त कर सकते हैं,सब कुछ अच्छे से बता सकते हैं तो फिर ऐसा करते क्यों नहीं हैं?मेरे पापा से बढ़ कर शानदार अभिव्यक्ति कर सकने वाला इंसान मिलना दुर्लभ है फिर भी उन्होनें बहुत कुछ समय पर क्यों छोड़ दिया?लर्निंग बाई डूइंग का उनका आदर्श वाक्य सबके लिए समान रहा,उनका मानना था कि जो करके सीखा जा सकता है वो अन्यत्र कहीं से नहीं सीखा जा सकता।इस सबके बावजूद उन्हों वो सब कुछ मेरे भीतर क्यों नहीं उँड़ेल दिया जो उनको कहना था,समझाना था।पचास के दशक में जब उनको कॉपरेटिव इंस्पेक्टर की ट्रेनिंग के लिए उदयपुर भेजा गया तब मात्र छह महीने में ही वहाँ से परेशान हो कर वापस गाँव की शुद्ध आबोहवा में आकर उन्होंने यह जता दिया था कि उनके,मन में कुछ और ही करने का माद्दा है।तब तत्कालीन काल में उनको अध्यापक लगा दिया गया और इससे वे बेहद संतुष्ट भी हुए क्योंकि उनके मन में नवाचार करने की भावनायें हिलोरे ले रही थी जिनको अध्यापक बन कर  ही शांत किया जा सकता था।उस समय उनके मन में यह था कि शिक्षा मनुष्य को पशुता से इंसानियत की और ले जाती है,उनके मन में उस समय ये बात किस वजह से कूट कूट कर भरी गई,ज्ञात नहीं।उनका पदस्थापन बीकानेर शहर की स्कूल पाबू पाठशाला में किया गया,जहां उन्होंने अध्ययन अध्यापन का कार्य तो किया लेकिन उनके मन मे चल रहे झंझावातों को मुक़ाम मिलता नज़र नहीं आया।उनको लगा कि पुस्तक ले कर बच्चों को कोई बात बताना या सिखाना न्यायसंगत नहीं हो सकता क्योंकि लिखित बातों का देश काल और परिस्थितियों से तालमेल हो यह संभव नज़र नहीं आता। जिस शिक्षक ने अपने विद्यार्थी जीवन में बेहद तकलीफ़ देख कर विद्याध्ययन किया हो,रोज़ाना बीसियों किलोमीटर पैदल चल कर पढ़ना सीखा हो,वो विद्यार्थी सही मायनों में शिक्षा के सही मायने जान जाता है।उनको लगा कि ये शहर की पाबू पाठशाला उनका मंतव्य नहीं है उनकी मंज़िल नहीं हैं।आईओएस, यह नाम था तत्कलीन ज़िला शिक्षा कार्यालय का जिसे इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स कहा जाता था।उस समय प्रारंभिक और माध्यमिक का पृथक अस्तित्व नहीं होता था और आईओएस ही समूचे ज़िले में शिक्षा प्रबंध के लिए स्वतंत्र होते थे,किसी भी प्रकार का कोई भी निर्णय लेने की समग्र स्वतंत्रता के साथ आईओएस ऑफिस कार्य करता था।ऐसे आईओएस ऑफिस में जा कर उन्होंने कहा कि उनका पदस्थापन किसी भी गाँव में कर दिया जाये।आईओएस ने आश्चर्य से इसका कारण जानना चाहा लेकिन वो अपने हिक्स से इतना ही क्लीयर कर सके कि उनको अपनी योग्यता के लिहाज़ से गाँव में ही शिक्षा की ज़्यादा आवश्यकता महसूस होती है क्योंकि अपने स्वयं के अध्ययन के दौरान जो उन्होंने महसूस किया,जाना उसको एलोबोरेट करना है,क्या,क्यों और कैसे ये भविष्य के गर्भ में है।आईओएस भी चूँकि मूलत: शिक्षक ही थे, उनको ये तो अवश्य लगा कि शहर के आराम से गाँव की दुशवार हालत में सामान्यत कोई  नहीं जाना चाहता,कुछ तो बात है, लेकिन शिक्षक के निर्लिप्त आग्रह और आँखों में प्रबल आत्मविश्वास देख कर  उन्होंने भावनाओं  को समझा और गाँव की आबोहवा में स्वतंत्र विचरण के लिए उनका पदस्थापन गाँव में ही कर दिया। 

Tuesday, April 16, 2024

शिक्षा कैसी हो

शिक्षा मानव को पशु से इंसान बनाती है,उसमें विकास की परिस्थिति को पैदा करती है लेकिन इस तथ्य को समझना वस्तुत बहुत गहन समझ को रेखांकित करता है।शिक्षा को आत्मसात करके इसकी समाज के लिए उपयोगिता स्थापित करना अपने आप में परोपकार के साथ जुड़ा सच है।चुनिंदा तीन प्रतिशत पढ़े लिखे लोगों के ज़िम्मे शेष सतानवें प्रतिशत लोगों का जीवन हो तो ऐसे में तीन प्रतिशत लोगों की जवाबदेही बहुत अधिक बढ़ जाती है।शिक्षा का मूल यह है कि वह व्यक्ति को स्वयं के लिये कम और दूसरों के लिए अधिक जीने के लिए तैयार करती है।आज से पचास साल पहले तक के माहौल में यही सच था।आज जहां शिक्षा का मूल्यांकन स्वयं के उत्थान और अपने तक ही सीमित है वहीं कालांतर में इसका तात्पर्य समाज के सर्वांगीण विकास से था।असल में नालंदा और तक्षशिला में जो तत्कालीन शैक्षिक परिवेश था वो वास्तव में अनुकरणीय था क्योंकि वहाँ सही मायनों में नागरिक निर्माण का कार्य किया जाता था।१९७० के दशक में चाहे शिक्षा का प्रसार बहुत अधिक न था लेकिन शिक्षा की ज़रूरत को शिद्दत से महसूस कर के असाक्षर लोग भी इसके वांगमय को समझते थे।

बीकानेर ज़िले में उस काल में संभवतः आधा दर्जन से अधिक माध्यमिक और इतने ही उच्च प्राथमिक विद्यालय थे जिनमें तीस हज़ार वर्ग किलोमीटर में पसरे इस ज़िले के विद्यार्थी और आसपास के ज़िलों के विद्यार्थी पढ़ने के लिए आते थे।जिस स्कूल के लिए ये भूमिका बनाई गई है वो उच्च प्राथमिक विद्यालय शेखसर उस समय में शिक्षा का अभूतपूर्व केंद्र बना हुआ था।संसाधनों की पर्याप्त विपन्नता के बावजूद इस गाँव में  शिक्षा के प्रति अनूठा अनुराग था यही कारण था कि इस गाँव में मिडिल स्कूल बनाया गया।सही कहें तो तत्कालीन समय में स्कूलों की व्यवस्था ग्रामीणों की रुचि और उनके  सहयोग के दम पर निर्भर करती थी।हालाँकि सरकारी नौकरी करने के क्रेज़ को लेकर उस समय स्कूलों में पढ़ाई और पाठ्यक्रम निर्मित नहीं होते थे,स्कूलों में आदर्श इंसान निर्माण के पाठ्यक्रम के साथ साथ बालकों के सर्वांगीण विकास की बानगी तय होती थी।शेखसर हालाँकि ज़िला मुख्यालय से बहुत दूर और संसाधन विहीन गाँव था लेकिन यहाँ के लोगों की शिक्षा के प्रति ललक और रुचि देख कर यह कहा जा सकता है कि यहाँ के लोग सहाय मानव निर्माण के प्रति बेहद सजग है।ऐसा एनी गाँवों में नहीं देखा सुना गया,इसका क्या कारण रहा हो सकता है इसका विश्लेषण करें तो यह सामने आता है कि यह गाँव चूँकि राजाओं महाराजाओं के संपर्क में था और यहाँ के ज़मींदार तत्कालीन  राजाओं के साथ मिलते जुलते रहते थे इस कारण इनका ज्ञान वर्धन होता रहता था। 

शेखसर के मिडल स्कूल में शेखसर गाँव के विद्यार्थी तो आवश्यक रूप से अध्ययन करते ही थे जबकि ज़िले के अन्य इलाक़ों से आने वाले छात्र यहाँ मनोयोग से पढ़ते थे।इस विद्यालय ने ज़िलों की सीमाओं को लांघ कर जो माहौल क़ायम किया वो किसी आश्चर्य से कम नहीं हो सकता।श्री गंगानगर,चूरु,जोधपुर,जैसलमेर आदि ज़िलों के निकटवर्ती गाँवों से छात्र यहाँ इसलिए अध्ययन करने के लिए आते थे कि यहाँ असल में शिक्षा का वास्तविक परिवेश क़ायम था।स्कूलों में कक्षा संचालन,प्रार्थना सभा,सह पाठ्येतर गतिविधियों,सांस्कृतिक आयोजन,सामाजिक सरोकार,अध्यापक अभिभावक परिषदें सहित वो सब कुछ यहाँ उपलब्ध था जो असल में शिक्षण संस्थानों की प्राथमिक अवश्यकता होती है।

इस विद्यालय में शिक्षकों के अभाव की वजह यह थी कि इस गाँव तक पहुँचने के लिये किसी भी प्रकार का कोई साधन उपलब्ध नहीं था इसलिए लोग यहाँ आने में बेहद हिचकिचाते थे।इस विद्यालय में व्यवस्थित माहौल के कारण विद्यार्थियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी लेकिन शिक्षकों की कमी के कारण शैक्षिक माहौल निर्मित नहीं हो पा रहा था।उस समय भी इस स्कूल में अध्यापाक अभिभावक समिति बहुत ज़िम्मेदारी के साथ कार्यरत थी।गाँव में चाहे कितनी भी पार्टी पॉलिटिक्स रही होगी लेकिन स्कूल के मामले में समूचा गाँव सदैव एक जाजम पर होता था।

Tuesday, April 9, 2024

शहर छोड़ कर गांव में पदस्थापन

वर्तमान का जो मौजूदा परिवेश हमें देखने को मिलता है वो वस्तुत: बहुत सी गहराइयाँ लिए होता है,वर्तमान की नींव में अतीत दफन होता  है वो अतीत जो कभी वर्तमान होता था,उसी तत्कालीन वर्तमान की मज़बूत नींव पर जो वर्तमान इमारत खड़ी है उसका इतिहास तैयार किया जाना चाहिए।कल्पना कीजिए जिस वर्तमान में हम है,उसका अतीत जैसा भी था उसी के दम से तो वर्तमान है?अतीत में जिन लोगों ने अपने आपको उत्सर्ग किया,जिन लोगों ने अपने आपको समर्पित किया उनको विस्मृत करना इतिहास कभी गवारा नहीं करता।मान  लीजिए किसी इमारत की नींव को सहसा निकल लिया जाये तो क्या वो इमारत खड़ी रह सकेगी? कहा जाता है कि इंजीनियर की गलती भवन में,डॉक्टर की गलती श्मशान में दफ़्न हो जाती है लेकिन शिक्षक की गलती से सभ्यताएँ दफन हो जया करती हैं।

1958 में बीकानेर की पाबू पाठशाला में पदस्थापित युवा अध्यापक भंवर सिंह शेखावत को शहर पसंद नहीं आया और उन्होंने गांव में पोस्टिंग मांगी!गांव में जहां अध्यापकों। का बहुत अभाव था वहां तुरंत उनको बीकानेर से तीस किलोमीटर दूर शेरेरा गांव में लगा दिया गया शैरेरा में स्कूल एक झोंपड़े में,पास के ही एक अन्य झोंपड़े में अध्यापक आवास।शहर की सभी सुख सुविधाएं छोड़ कर सुदूर गांवों को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले भंवर सिंह जी ने तो हैं में स्कूल की जाजम जमा दी लेकिन परिवार में दो बच्चों को चिंचड़ चिपक कर बीमार बना गए।अमीर घराने की उनकी अर्धांगिनी को बाकी सब तो बर्दाश्त था लेकिन छोटे बच्चों की दुर्गति वो नहीं सहन कर सकी।उन्होंने ऐलान कर दिया की वो यहां नहीं रहेगी।छोटे छह माह के बालक की चिंचड और ऐसे विषाणुओं ने काट काट कर सूजा दिया।घबराई मां बच्चे को गोद में उठा कर पच्चीस किलोमीटर दूर  रेतीले धोरों में से वैद्य को दिखाने गई तब कहीं जा कर बच्चे को बचा सकी। मां ने तय कर लिया कि अपने मासूम बच्चों की जान की कीमत पर वो ऐसी नौकरी नहीं करने देगी।वो बीकानेर आ गई और किराए के मकान में रहने लगी।भंवर सिंह जी को तो गांवों से प्रेम था ,उन्होंने कपूरीसर में पोस्टिंग करा ली।बीकानेर से करीब सौ किलोमीटर दूर इस गांव में रहे, बाद में जब सेकंड ग्रेड में प्रोमोशन हो गया तो  १९७० में इसके पडौस के शेखसर गांव में बतौर हेड मास्टर पोस्टिंग हुई। शेखसर बड़ा गांव था,चिकित्सा सुविधा थी,आयुर्वेदिक अस्पताल था,यहां ठीक बैठा,और शेखसर में अपने आपको स्थापित करने की ठान ली। शेखसर के लोगों में शिक्षा के प्रति ललक और जागृति देख कर भंवर सिंह जी का उत्साह बढ़ा और वे जुट गए।स्कूल मिडल हो गई लेकिन कमरे नहीं थे, चंदा किया गांव गांव शहर शहर घूमे,चंदा इकट्ठा कर के स्कूल के कमरे बनाए,अध्यापकों के रहने के लिए आवास बनाए और एक शानदार विद्यालय सिस्टम को आकार दिया।परिवार के साथ शेखसर में रहते हुए उन्होंने शिक्षा की ऐसी अलख जगाई कि दो साल में ही शेखसर के स्कूल की ख्याति फैलने लगी। उस जमाने में मिडल स्कूल शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र हुआ करते थे,जिले में ही चंद  दो चार मिडल स्कूल हुआ करते थे।इस स्कूल में आसपास के गांवों से पढ़ने के लिए छात्र प्रवेश लेने लगे।देखते ही देखते यह स्कूल पश्चिमी राजस्थान का  बहुत बड़ा शिक्षा केंद्र बन गया।बीकानेर,चुरू,श्री गंगानगर, हनुमानगढ़,सीकर,जैसलमेर,झुंझुनूं  सहित अनेक जिलों से यहां छात्र आने लगे,भंवर सिंह जी ने पुराने पंचायत भवन को छात्रावास का रूप दिला दिया।अब स्कूल चौबीसों घंटे चलने वाला केंद्र बन गया।यहां स्कूल दिन में भी और रात में भी चलता था क्योंकि अध्यापकों और छात्रों के पास दूसरा कोई काम ही नहीं था।भंवर सिंह जी ने इधर उधर से ढूंढ कर अपने से संबंधित ग्रामीण इलाकों के अध्यापकों की खोज कर उनकी पोस्टिंग यहां करवा ली वहीं जब शिक्षा विभाग के अफसरों ने देखा कि छात्र संख्या निरंतर बढ़ रही है,राजस्थान के अनेक स्थानों से छात्र यहां पढ़ने आ रहे हैं तो उन्होंने यहां अध्यापकों की नियुक्तियां भी कर डाली।आठवीं तक के स्कूल में करीब आठ दस अध्यापक हो गए और सब के सब गांव में स्थाई रूप से रहने वाले,क्योंकि गांव से बाहर जाने के लिए कोई साधन था ही नही।कोई कहीं बाहर जाए तो भी कहां जाए इसलिए दिन रात बच्चों को पढ़ाने और खेल कूद की गतिविधियों के अलावा कोई काम नहीं था।विद्यालय शिक्षा का केंद्र तो होता है लेकिन उचित और आवश्यक संसाधनों के अभाव में शिक्षा अपने मूल स्वरूप में नहीं रह सकती।शिक्षा देने और लेने के लिए माहौल,भवन,संसाधन,बैठने के प्रबंध,कालांश प्रबंध,अध्यापकों की मौजूदगी आदि अनेक कारक आवश्यक होते हैं।ग्रामीण माहौल में पढ़े लिखे पले बढ़े हेड मास्टर जी ने गाँव को स्कूल में शासमिल करने की ठानी।


Friday, April 5, 2024

अमरबेल क्या है?

बरसों बाद इस ब्लॉग की याद तब आई जब इसके प्रेरक मेरे पिताजी मुझे छोड़ कर स्वर्गवासी हो गए।वास्तव में अमरबेल शीर्षक उनको ही समर्पित है,अमरबेल कोई काल्पनिक नहीं सचमुच का कथानक है जिसे मैंने बचपन से जिया है।इसकी एक अनुभूत परिस्थिति है कि 2009 में जिस कथानक को बनाया,जिसको मूर्त रूप देने का विचार किया उसको सच बनाने में एक दशक से अधिक का समय व्यतीत हो गया।कहा जाता है कि शाहकार जब बनते हैं तो उनकी नींव बहुत गहरी होती है,अमरबेल कोई साधारण घटनाक्रम नहीं है,अमरबेल की वास्तविकता में आधी शताब्दी की सच्चाइयां है,कई पीढ़ियों का उतार चढ़ाव है,बहुत कुछ ऐसा है जिसे वर्तमान परिवेश में सोचा भी नहीं का सकता। अमरबेल विषम परिस्थितियों का ऐसा लेखा जोखा है जो जीवन में श्रेष्ठ नागरिक निर्माण,शिक्षा की वास्तविक जरूरतों,ग्राम विकास सहित सर्वांगीण आमूलचूल परिवर्तन सहित अंततः देश के नवनिर्माण तथा नागरिक निर्माण की पृष्ठभूमि है।अमरबेल शीर्षक चाहे जो भी कुछ कहता हो लेकिन इस शीर्षक तले जो भी उकेरण होने जा रहा है वो अभूतपूर्व है।अमरबेल में हमारी संस्कृति,हमारी परंपराएं,हमारे परिवार,हमारे विद्यार्थी,अभिभावक,स्कूल,पाठ्यक्रम,प्रशासनिक व्यवस्था,शिक्षा में प्रशासन,शिक्षण की कला, संस्कृति का संरक्षण,नागरिक निर्माण की जिम्मेदारी और जवाबदेही सहित चारित्रिक उत्थान,चरित्र निर्माण,बालिका शिक्षा,महिला संबल,अंतिम छोर तक शैक्षिक जागृति,रूढ़ियों,अंधविश्वासों और स्थापित कुरीतियों के प्रति संजीदगी सहित वो सब कुछ है जो सामाजिक ताने बाने के लिए आवश्यक है। अमरबेल हमें बताता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप को कोई स्थान नहीं है, अमरबेल एक विशाल पुराण कहा जा सकता है जो हमें ये बताता है कि शिक्षा में अगर सबकी सामूहिक भागीदारी हो तो किसी शासन प्रशासन की बहुत जरूरत नहीं।आज से पचास साल पहले की शैक्षिक व्यवस्था को यदि हैं गौर से देखें तो एक ही बात समझ में आती है कि कक्षा कक्ष हो ना हो विद्यालय में प्राण होने अनिवार्य है।अमरबेल हमें बताती है कि कलेक्टर, एसपी थानेदार नाजिम हाकिम सब के सब स्कूल के बाद ही है।स्कूल अगर शिद्दत से चाह ले तो शेष प्रशासन को कुछ करने की दरकार नहीं।स्कूल ऐसा संस्थान होता है जहां आईपीसी सीपीसी और सभी पैनल कोड बात बात में समझा दिए जाते हैं,स्कूल वो जगह है जहां बताई और सिखाई गई बात के गंभीर और स्थाई मायने निकलते हैं।थानेदार और मजिस्ट्रेट जो बात डर और भय से नहीं सीखा सकते वो बात हमारे स्कूल सहज ही दिलों में पैबस्त कर देते हैं।अमरबेल एक कथानक है, अमरबेल एक सत्य वृतांत है, अमरबेल गवाह है उन विपन्न हालातों का जब पढ़ाई के लिए वातावरण की नहीं,कमरों की नहीं सिर्फ और सिर्फ माहौल और मनोबल की जरूरत होती है,अमरबेल कहता है कि विद्यालय चारदीवारी,कमरों,और आधुनिक सुख सुविधाओं से नही बल्कि शिक्षको, अभिभावकों और विद्यार्थियों के समूह से बनते हैं। ये न केवल विद्यालय बल्कि संस्कार निर्माण केंद्र,नागरिक निर्माण केंद्र होते हैं। अमरबेल के साथ वैसे तो अनकही अनथक सत्य वास्तविकताएं जुड़ी हुई है लेकिन उनका अगर दस प्रतिशत भी यहां उद्धृत किया जा सका तो इसकी सार्थकता होगी। अमरबेल का शाब्दिक विवेचन करें तो यह एक ऐसी बेल होती है जो विकास,उत्पादन और वृद्धि को इंगित करती है, अमरबेल इस कदर अच्छादित होती है की उसकी घनी छांव हो जाती है और इसके आसरे तले वृद्धि ही वृद्धि होती है। अमरबेल के बड़े बड़े गहरे हरे भरे पत्ते अपने भीतर रस और पोषक तत्व समाहित किए होते हैं और इसका तना गुंथ कर इतना मजबूत आकार ले लेता है कि इससे बेल के कमरे भी बनाए जा सकते हैं जो आवश्यकता पड़ने पर पूर्ण कक्ष का काम दे सकते हैं।वनस्पति के रूप में अमरबेल के बारे में और भी कुछ कहा जा सकता है लेकिन यहां अमरबेल का जिक्र विषयांतर के लिए है।अमरबेल यहां वह सच्चाई है जहां इसकी छांव में कितने ही शिक्षाविद अपनी विद्वता को प्रस्तुत कर गए,कितने ही विद्यार्थी गुरुकुल की तर्ज पर इसकी घनी छांव में बैठ कर पढ़ पढ़ कर कामयाब हो गए,कितने ही अधिकारी इस अमरबेल का दीदार कर के प्रत्यक्षदृष्ट हो गए कि गुरुकुल कमोबेश ऐसे ही हुआ करते हैं। अमरबेल शीर्षक के सच्चे घटनाक्रम का जिक्र करना प्रासंगिक है क्योंकि अमरबेल नमक यह ग्रंथ चाहे कोई क्रांति करने में कामयाब हो न हो लेकिन यह मानवता,इंसानियत और कर्तव्यनिष्ठा का अद्भुत दर्शन होगा। 1970 का कोई दिन,बीकानेर से करीब 115 किलोमीटर दूर लूणकरणसर तहसील का ऐतिहासिक गांव शेखसर,मलकीसर से ठीक 15 किलोमीटर रेतीले धोरों में बसा एक पुराना गांव जहां आने जाने के लिए कोई साधन नहीं,ऊंचे नीचे पहाड़ जैसे रेत के धोरे जिनमे से चल कर जा सकना लगभग असंभव।ऐसे शेखसर गांव की स्कूल प्राइमरी मिडल बनी और वहां मिडल स्कूल के हेडमास्टर के रूप में पदस्थापित हुए कुंवर भंवर सिंह शेखावत।भंवर सिंह शेखावत यहां के पहले हेडमास्टर के रूप में यहां आए तो यहां पहुंचना भी उन्हें चुनौती लगा।सुदूर रेत के धोरों में बसे इस गांव में मिडल स्कूल का होना अपने आपमें किसी उपलब्धि से कम नहीं।समूचे बीकानेर जिले में ही जहां एक दर्जन से अधिक मिडल स्कूल और आधा दर्जन से अधिक सेकेंडरी स्कूल नहीं होंगे ऐसे में मिडल स्कूल के महत्व को समझा जा सकता है। शेखसर का स्कूल,एक नीम का विशाल पेड़,और दो कमरे,गांव से एकदम बाहर।ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले बढ़े और सीमित संसाधनों का महत्व समझ सकने वाले युवा हेडमास्टर जी जिनकी उम्र तकरीबन 28 साल रही होगी।उन्होंने स्कूल को देखा,नीम के पेड़ और उस पर लटकी रेल की पटरी की घंटी को देखा और देखा एक जाल के पेड़ को।बस इतना सा स्कूल।बहरहाल,ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े हेडमास्टर जी गांव के चौधरी जी के घर गए,अपना परिचय दिया और रहने की व्यवस्था चाही।चौधरी साहब ने स्वागत किया,मिडल स्कूल के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने यथोचित आदर सत्कार किया और हरसंभव मदद का आश्वासन दिया।हेडमास्टर जी के पास स्टाफ के नाम पर उसी गांव के दो अध्यापक वो भी तृतीय श्रेणी। हेडमास्टर जी ने स्कूल संचालन शुरू किया।बेतरतीब सिस्टम को संभालने की जुगत में ग्रामीणों को बुलाया मीटिंग की।गाँव में जब ये खबर हुई कि कोई हेडमास्टर ऐसा भी है जो गंभीरता के साथ स्कूल संचालन चाहता है तो उनमें रुचि जागृत हुई।जब गाँव वालों को ये पता चला कि यह व्यक्ति शहर की विकसित चकाचौंध को त्याग कर सुदूर गाँव में रह कर स्कूल संचालन करने का इच्छुक है तो गाँव में सकारात्मक माहौल तैयार हुआ।अंततः जब गाँव में यह पता चला कि ये हेडमास्टर ख़ुद ही पास के हाँव का रहने वाला है और ग्रामीण परिवेश और पृष्ठभूमि को हृदयंगम करने वाला है,तो गाँव का उत्साह और अधिक बढ़ा।हेडमास्टर जी ने भी जब देखा कि गाँव ठेठ ग्रामीण संस्कारों  से परिपूर्ण है और ठीक वैसा ही है जैसा उनका ख़ुद का गाँव है,तो उनका विश्वास जम गया और उन्होंने यहाँ अपने आपको ठहराने का मानस बना लिया।उनकी ग्रामीणों से अभ्यर्थना थी कि उनको सपरिवार रहने की माकूल व्यवस्था कर दी जाये,बाक़ी काम वो ख़ुद देख लेंगे।

Sunday, May 22, 2016

महाकुम्भ इलाहाबाद से सिंहस्थ उज्जैन कुम्भ तक

फरवरी 2013,स्वच्छ भारत मिशन बीकानेर का कार्यभार सँभालने  के तुरंत  बाद गुरु कृपा से महाकुम्भ इलाहाबाद जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ| जब देश  में कोई भी स्वच्छता का जिक्र नहीं करता था तब बीकानेर में बंको बिकाणों अभियान का सृजन कर जिले को ओडीएफ बनाने का संकल्प संजोया|अप्रेल 2013 से संचालित यह सफ़र बिना रुके अनवरत लगातार चल और चलता ही गया|जिला,राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर इस अभियान के लिए सम्मानित होने के साथ ही जिले को ओडीएफ बनाने का यह सुखद संकल्प पूर्ण हुआ|21 अप्रेल 2016 को सिविल सर्विसेस दिवस पर नई दिल्ली के विज्ञानं भवन में देश के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के हाथों राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त करके राजस्थान के पहले एवं देश के दूसरे जिले के रूप में गौरवान्वित होने के पश्चात 11 मई 2016 को सिंहस्थ कुम्भ उज्जैन में गुरुकृपा से जाने का अवसर मिला|
कुम्भ से कुम्भ तक की इस महायात्रा में अनेक मुकाम आये और अंततः मंजिल मिली|
ब्लॉग लिखे एक अरसा हो गया अब इसे वापस शुरू किया जा रहा है,अनवरत जारी रहेगा यह सिलसिला| यह ब्लॉग लिखने का कारण भी अजीब है।उज्जैन के महाकुंभ में समर्थ सद्गुरू श्रीधर जी ब्रह्मचारीजी महाराज के सानिध्य में कुछ दिन रहना और पूर्ण आध्यात्मिक वांगमय को आत्मसात् करने के अतिरिक्त यहाँ परिजनों को भी आध्यात्मिक अतिरेक का एहसास करवाना एक कारण रहा।यह अनुभूत सत्य है कि आप इस जहान में आध्यात्मिक स्फुर्णा और ऊर्जा  के बिना कामयाब नहीं हो सकते।महाकाल की नगरती उज्जैन में  समर्थ सद्गुरू के आशीर्वाद तले रह कर जीवन को सुधारने का अभूतपूर्व अवसर किसी वरदान से कम नहीं।उज्जैन में गुरुदेव का आदेश हुआ कि क्षिप्रा का स्नान तो हुआ,अब नर्मदा मैया में। स्नान का सुख और पुण्य प्राप्त करो और नेमावर आश्रम में जा कर वहाँ की सात्विकता का आनंद उठाओ।हम सबब लोग अपन्नी दोनों गाड़ियों से गुरुदेव के शिष्य शुक्ला जी के मार्गदर्शन में नेमावर पहुँच गये,गुरुगृह में आनंद लिया,नर्मदा स्नान किया।
 

Saturday, February 13, 2010

अमरबेल १३ फरवरी २०१०

अन्तराल तो है लेकिन कुछ भी सच लिखने के लिए समय तो चाहिए,मेरे स्मृति पटल पर पड़ चुकी गर्द काफी गहरी है फिर भी में उसके भीतर से जो कुछ झांक कर देख पा रहा हूँ,वही कुछ बता पा रहा हूँ
संसाधन विहीन उस गांव की स्कूल कि बात करने में मुझे इतना अचम्भा हो रहा है कि कभी कभी में सोचता हूँ कि ऐसा कैसे संभव हो सकता है?आज के परिवेश से जब मैं उस परिवेश कि तुलना करता हूँ तो लगता है कि मैं झूठ बोल रहा हूँलेकिन झूठ नहीं है ये भी मैं जानता हूँ,ये भी जानता हूँ कि मेरी इस बात को जो भी पढ़ेगा वो इसे अतिश्योक्ति ही कहेगा
बहरहाल, योग्य और एक सर्व गुण संपन्न नागरिक कैसे बनाया जाये? इन कुछ बातों पर यदि हम गोर करें तो महसूस करेंगे कि सतही स्तर पर शिक्षण का स्तर क्या हो?विद्यार्थी की परिभाषा क्या हो? अभिभावक को किस प्रकार अपने बच्चों की देखभाल करनी चाहिए?अध्यापक अभिभावक परिषद् कैसे काम करती है?अध्यापक के पढ़ाने के तरीके क्या हों?अध्यापक डायरी का क्या महत्व है?पाठ्यक्रम किस प्रकार से समझा जाये?इसे स्थानीय परिवेश के साथ कैसे जोड़ा जाये?प्रार्थना सभा का जीवन में क्या महत्व है?अनुशासन कैसे कायम हो?शिष्य और गुरु के सम्बन्ध घनिष्ठ कैसे बनें?विद्यार्थी कुशाग्र कैसे बनें? हमें ये देखना होगा की ऐसे स्कूलों को कैसे सालों साल चलाया गया?वो लोग हमें ढूंढ कर लाने पड़ेंगे जो इस व्यवस्था के संचालक थे अन्यथा बहुत देर हो जाएगी

Wednesday, January 13, 2010

मोन मानव का आभूषण है,इस सच्चाई को सदियों से हमारे ग्रंथकारों ने स्वीकार कर इसे प्रतिपादित किया है,हममें सबसे बड़ी समस्या है कि हम बोल कर अपने आपको अभिव्यक्त करने की नाकाम कोशिशें करते हैं और इया प्रयास में विफल हो जाते हैं। इन्सान अगर अपने आपको अभिव्यक्त करने से बचे और सामने वाले को पूरा सुन कर संक्षिप्त बात कहे तो इस आदत से दुनियां का नक्शा ही बदल सकता है.मोन रहना बहुत सी समस्याओं का अंत है.